बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 मनोविज्ञान बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 मनोविज्ञानसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 मनोविज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- किशोरावस्था में यौन शिक्षा पर एक निबन्ध लिखिये।
उत्तर -
किशोरावस्था में व्यक्ति का शारीरिक विकास भी बड़ी तीव्रता से होता है। उत्तर - बाल्यकाल की स्थिरता गत्यात्मकता में परिवर्तित हो जाती है। किशोर के सभी अंगों में बहुत परिवर्तन आ जाता है। किशोर इस अवस्था पर आकर अपनी माँसपेशियों को सुन्दर, बलिष्ठ एवं गठित बनाने के लिए तैरना, डम्बल के व्यायाम करना, कुश्ती लड़ना आदि विविध प्रकार के व्यायामों में अत्यन्त रुचिपूर्वक भाग लेना प्रारम्भ कर देता है। बालक की इस किशोरकालीन प्रवृत्ति का लाभ उठाने के लिए अभिभावकों को चाहिए कि बालकों को खेलने और व्यायाम करने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करें तथा उसके लिए प्रोत्साहन भी दें।
'किशोर' व्यक्ति के जीवन का वह काल है जबकि वह सन्तानोत्पादन के योग्य हो जाता है। यही वह समय है जब बालकों की लिंग-ग्रन्थियों में शुक्रस्राव होने लगता है, जो स्त्री के अण्ड में मिलकर गर्भाधान करने के योग्य होता है। इसी प्रकार यह बालिकाओं के लिए भी लैंगिक प्रौढ़ता का समय है।
किशोरावस्था में बालक में महान् शारीरिक परिवर्तन आ जाते हैं। बालिकाएँ स्त्रीत्व को प्राप्त करती हैं और बालक पुरुषत्व को । 'किशोरावस्था' बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था के बीच का समय है। इनका प्रारम्भ तारुण्य के लक्षणों से पहचाना जाता है, किन्तु यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि ऐसी कोई रूढ़ सीमा रेखा नहीं हो सकती जब से ही सभी बालिकाओं में ऋतुस्राव प्रारम्भ हो किसी में एक-दो वर्ष प्रथम और किन्हीं बालिकाओं में एक-दो वर्ष उपरान्त भी यह प्रारम्भ हो सकता है, क्योंकि अधिकतर यह उनके शारीरिक स्वास्थ्य पर आधारित होता है। यही तथ्य बालकों के लिए है।
बालिकाओं में अभिवृद्धि की सबसे अधिक द्रुतता 121⁄2 वर्ष पर होती है और बालकों में लगभग 14 वर्ष पर। इस अवस्था में शारीरिक परिवर्तन स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं और अभिवृद्धि की दृष्टि से उनमें नाटकीय परिवर्तन होता है। किशोर के हाथ, पैर, नाक इत्यादि बहुत लम्बे हो जाते हैं। उसके भार में बहुत अधिक और शीघ्र परिवर्तन होता है । वह लगभग 35 पौण्ड तक एक ही वर्ष में बढ़ जाता है। बालक की आवाज भारी पड़ जाती है, वह प्रौढ़ के समान प्रतीत होती है। आवाज रूक्ष भी हो जाती है जिसके कारण कभी-कभी बालक में घबराहट होती है । दाढ़ी और मूँछें निकलना प्रारम्भ हो जाती हैं, जिससे बालक को बड़ा भद्दा अनुभव होता है। लड़कियों में उरोज विकसित होने लगते हैं। वे अधिक उन्नत और गोलाकार रूप में बढ़ते हैं। ये सभी परिवर्तन बालक के स्वभाव में चिड़चिड़ापन लाते हैं। वह बेचैनी का अनुभव करता है तथा आत्म- केन्द्रित बन जाता है।
चूँकि विभिन्न बालकों में विभिन्न प्रकार अभिवृद्धि होती है, इसलिए कभी - कभी यह भी देखा जाता है कि 12 वर्ष का बालक 15 वर्ष के सामान्य बालक अथवा बालिका के समान प्रौढ़ होता है तथा एक 15 वर्ष का बालक 11 वर्ष के सामान्य बालक के समान ही विकसित होता है। ये अनियमितताएँ अध्यापक और अभिभावकों के लिए बड़ी समस्याएँ उत्पन्न कर देती हैं। सामान्य समय से उत्तरकाल का तारुण्य प्राप्त बालक अपने को सरलता से समाज में व्यवस्थित नहीं कर पाता, जितना कि पूर्व तारुण्य प्राप्त बालक । उस बालक का व्यवहार समाज और पाठशाला दोनों में ही बच्चा जैसा होगा, जबकि अवस्था की दृष्टि से उसमें गम्भीर व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। जो बालक शारीरिक दृष्टि से कम उन्नत होते हैं, वे अधिक चंचल, प्रभुत्व जमाने वाले और अधिक ऊर्जस्वित होते हैं। उनका व्यवहार चंचल और शोख होता है।
तारूण्य के आ जाने से बालकों में विषम लिंगीय (Hetero sexual) प्रेम उत्पन्न हो जाता है। काम - भावना की जागृति तीव्र गति से होती है। 18 वर्ष की अवस्था तक बहुत-से बालक उचित वातावरण न मिलने पर बिगड़ जाते हैं, उनकी रूचि विपरीत लिंग के प्रति विकृतावस्था तक पहुँच जाती है।
बालकों की अन्य विभिन्नताओं के समान उनके शारीरिक विकास में वैयक्तिक भिन्नता होती है । कोई प्रारम्भ से ही हष्ट-पुष्ट और स्वस्थ होता है तथा समय पर आकर पूर्ण तारुण्य को प्राप्त होता है। कोई शुरू में ही कमजोर, दुबला-पतला होता है और बहुत समय उपरान्त पूर्ण प्रौढ़ता को प्राप्त होता है।
किशोरावस्था में बालक अत्यन्त संवेगात्मक अवस्था में रहता है। उसमें भावुकता, अस्थिरता, घबराहट, भावों के उतार-चढ़ाव एवं अहं चरम सीमा पर होता है। वह कभी-कभी बहुत उत्तेजित हो उठता है और कभी अत्यन्त मलिन मन और खिन्न दिखाई पड़ता है। उसके संवेग आनन्द और उदासीनता के बीच में आते हैं। इस काल में जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में आने वाले संवेगों की पुनरावृत्ति होती है। यदि उस समय इन संवेगात्मक संघर्षों को भली-भाँति हल नहीं किया गया तो किशोरावस्था में वे अधिक तीव्र रूप में प्रकट होते हैं।
किशोर सफलता प्राप्ति के लिए कुछ अवसर चाहता है, वह चाहता है कि वह कुछ ऐसा कार्य करे जिससे लोग उसकी सराहना करें, उसे बहुत समझें। किसी न किसी प्रकार उसकी आत्म-प्रदर्शन की तीव्र भावना रास्ता खोजना चाहती है।
किशोरावस्था सामाजिक व्यवस्थापन का समय है। इस काल अवधि में व्यक्ति - सामाजिक सम्बन्धों के बहुत से पाठ पढ़ता है और बहुत सामाजिक अनुभव प्राप्त करता है तथा सामाजिक परिस्थितियों में अपने को व्यवस्थित करने की चेष्टा करता है। किशोर-काल के प्रारम्भ में बालक और बालिकाओं की मित्रता तीव्र संवेगों के ऊपर आधारित होती है। उत्तर किशोर-काल में इस मित्रता का आधार वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं रुचियों की समानता होती है। इस काल की मित्रता में एक-दूसरे के प्रति दृढ़ प्रेम एवं प्रगाढ़ भक्ति होती है। वे एक-दूसरे के प्रति वफादार होते हैं।
मैत्री भावना के विकास की प्रथमावस्था में अपने ही वर्ग के प्रति प्रेम होता है, जैसे- लड़के, लड़कों से लड़कियाँ, लड़कियों से मित्रता करना पसन्द करते हैं। दूसरी अवस्था में किसी भी लिंग के किन्तु उम्र में बड़े लोगों के प्रति प्रगाढ़ प्रेम होता है तथा तीसरी अवस्था में मैत्री का विकास केवल समान उम्र के विषमलिंगी के प्रति होता है।
विषमलिंगी के प्रति प्रेम, किशोर के रुचि रुझान इत्यादि को जानने में बहुत सहायता पहुँचाता है। यह जानकारी भावी जीवन में उनके साथ सह - आस्तित्व स्थापित करने और मधुर सम्बन्धों को जोड़ने में भी अत्यन्त लाभदायक सिद्ध होती है। दुर्भाग्यवश हमारे देश में बालक इन अनुभवों से पूर्णरूपेण वंचित रहता है। बालक और बालिकाओं को पृथक्करण की नीति को अपनाने के कारण उसमें मेलजोल नहीं होता । वे किन्हीं सामाजिक व सामूहिक कार्यों में साथ-साथ भाग नहीं ले सकते हैं अत: वे एक-दूसरे से बिल्कुल अपरिचित रहते हैं। यह अनिभिज्ञता व्यक्तियों में बहुत-सी बुराइयों को जन्म देती है और प्रौढ़ होने पर भी पुरुष अन्य स्त्रियों से और स्त्रियाँ अन्य पुरुषों से स्वतन्त्र रूप से एवं दृढ़ता से बातचीत भी नहीं कर सकती । बालक-बालिकाओं की यह पृथकता कभी-कभी भावना-ग्रन्थियों और दिवास्वप्नों को भी जन्म देने का कारण बनती है जिससे व्यक्ति का भावी जीवन उपर्युक्त दोषों के अतिरेक से भर जाता है तथा उसके व्यक्तित्व का सन्तुलित और सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता। उनका सामाजिक व्यवस्थापन भी अधूरा रहता है।
डॉ० जॉन के अनुसार - शैशवकालीन काम भावना की पुनरावृत्ति किशोरावस्था में अधिक तीव्र एवं उच्चतर रूप में होती है। यह अवस्था उत्तर बाल्यकालीन सुषुप्त काम भावना का जागृति- काल है। इसमें काम-प्रवृत्ति जाग्रत होकर तीव्र रूप से धारण करती है तथा व्यक्ति में प्रजनन शक्ति आ जाती है। यह सभी प्रकृति की ही देन है।
किशोर तरुणावस्था को प्राप्त कर सन्तानोत्पत्ति के योग्य बन जाता है और लिंगीय दृष्टि से पूर्ण विकसित हो जाता है। काम भावना का विकास किशोर में धीरे-धीरे होता है। उसकी तीन प्रमुख और स्पष्ट अवस्थाएँ होती हैं, जैसे-
(i) स्व-प्रेम (Autoerotism),
(ii) समानलिंगीय प्रेम (Homosexual)
(iii) विषमलिंगीय प्रेम की अवस्था (Heterosexual,
उपर्युक्त अवस्थाएँ व्यक्ति में एक के उपरान्त दूसरे के क्रम से आती हैं, किन्तु यह भी सम्भव हो सकता है कि किसी व्यक्ति में ये तीनों प्रकार के प्रेम एक साथ पाये जाते हों।
किशोर अपने ही शरीर से प्रेम करने लगता है और अपनी काम भावना की तृप्ति के लिए अपने लिंग अवयव को स्पर्श करता है। यह स्पर्श हस्तमैथुन जैसे अप्राकृतिक कार्यों तक पहुँच जाता है। मनोवैज्ञानिकों की अधिकतर संख्या इस बात पर एकमत है कि बालकों की बहुत बड़ी संख्या और बालिकाएँ भी बहुत बड़ी गिनती में हस्तमैथुन जैसी दुष्प्रवृत्ति का शिकार बनती हैं। आधुनिक काल तक मनोवैज्ञानिकों द्वारा हस्तमैथुन की प्रवृत्ति को बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता था, किन्तु हैवलॉक एलिस के विचार से- "यह स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। काम-भावना के जाग्रत हो जाने पर उसकी तुष्टि के विषय के अभाव में इस प्रकार के परिणामों का होना स्वाभाविक ही है। काम भावना की पूर्ति न होने के फलस्वरूप प्रौढ़ावस्था से पहले तो इस प्रकार की क्रियाएँ दृढ़तापूर्वक स्वाभाविक ही समझी जाती हैं।" आजकल किशोर द्वारा स्वमैथुन अथवा हस्तमैथुन स्वाभाविक समझा जाता है। एक युवक के लिए उसकी स्वाभाविक काम-वासना की तृप्ति का जब कोई साधन नहीं होता या उसके लिए दुर्लभ अथवा अप्राप्य होता है तो उसके अभाव में व्यक्ति अपनी सहजात काम - प्रवृत्ति की तुष्टि, जो इस काल में आकर अत्यन्त तीव्र बन जाती है, अप्राकृतिक साधनों - हस्तमैथुन इत्यादि से ही करता है।
प्राचीन काल में निन्दा करके कि हस्तमैथुन क्रिया द्वारा किशोर को बहुत ही शारीरिक हानि होती है तथा यह कहकर कि वह प्रवृत्ति पापमय है, व्यक्ति को बहुत ही हानि पहुँचाई जाती थी । व्यक्ति अपने को दोषी एवं पापी समझने लगता था और शारीरिक हानियों को विचारकर उसके मन में बहुत-से संवेगात्मक उलझनें पैदा होती थी और संवेगात्मक आघात लगता था ।
चूँकि स्वमैथुन के दोषों की अत्यधिक आलोचना करने से बालक में बहुत-सी बुराइयाँ आ जाती हैं, वह बहुत ही शर्मीला बन जाता है और अपने को दोषी समझने लगता है। अतः उसकी बुराइयों और दोषों की अधिक भर्त्सना नहीं करनी चाहिए। फिर भी स्व-मैथुन की बहुत-सी बुराइयाँ हैं ही और उसे व्यक्ति की हानि भी हो सकती है। अतः इस प्रकार की प्रवृत्ति को हतोत्साहित ही करना चाहिए। यदि यह प्रवृत्ति प्रौढ़ावस्था तक चलती रहती है और काम भावना की तुष्टि के लिए प्राकृतिक साधन होते हुए भी लोग इसे अपनाते हैं तो इसके परिणाम अत्यधिक हानिकारक होते हैं।
यह वह अवस्था है जबकि समान लिंग के व्यक्तियों में परस्पर प्रेम उत्पन्न हो जाता और वह कामुकता की दशा को पहुँच जाता है। किशोरकाल के प्रारम्भ में लड़के लड़कों से ही हो सकता है। इसलिए उन्हें सहयोगी कार्यों और खेलों में भाग लेने का अवसर प्रदान करना चाहिए। किशोरावस्था में काम-सम्बन्धी शिक्षण ( Sex education) भी परम उपयोगी होती है। उससे किशोर की काम-सम्बन्धी जिज्ञासा की पूर्ति होती है, वह अन्धकार में भटकता नहीं है। उसे लिंग-सम्बन्धी जानकारी सही-सही और पूर्ण प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार काम-सम्बन्धी शिक्षण बालकों को उनके व्यवहार के व्यवस्थापन में बहुत सहायता पहुँचाता है।
भारत में समलिंगी कामुकता की प्रवृत्ति का उन्मुलन सरल नहीं है क्योंकि यहाँ बालक-बालिकाओं की शिक्षा पृथक्-पृथक् होती है और यह प्रवृत्ति उसी पृथक्करण की नीति का दुष्परिणाम होता है। आज से 20-25 वर्ष पहले जबकि बाल-विवाह का बोलबाला था, इस प्रवृत्ति का स्थानान्तरण विषमलिंगी कामुकता में किया जा सकता था, किन्तु समस्या गम्भीर है। यदि विद्यार्थियों को रचनात्मक कार्य में लगा दिया जाये तो बहुत-कुछ इस प्रवृत्ति का शोधन किया जा सकता है। बालक तथा बालिकाओं को मिल-जुलकर कार्य करने के अवसर देने चाहिए।
इस अवस्था में कामुकता का विषय विषमलिंगीय प्रेम होता है। इस प्रवृत्ति का विकास किशोरावस्था के उत्तर काल में होता है, किन्तु वह अन्य दो प्रारम्भिक प्रवृत्तियों के विकास-काल के समय उनके साथ-साथ भी पायी जाती है।
विषमलिंगीय प्रेम में यह भी सम्भावना हो सकती है कि दो व्यक्तियों का प्रेम विशुद्ध आदर्श के आधार पर स्थित हो, उनमें कुछ भी शारीरिक सम्बन्ध न हो। ऐसा प्रेम 'प्लाटोनिक प्रेम' (Platonic love) के नाम से पुकारा जाता है। बहुत से लोगों की यह धारणा होती है कि यदि किशोरावस्था में बालक-बालिकाओं को स्वतन्त्रता से मिलने दिया जायेगा तो अनुभव - विहीन और कामुकता की उत्तेजना के कारण वे अपनी कामवासना को मैथुन के रूप में परिणत कर देंगे जो सर्वत्र हेय एवं निन्दनीय है, किन्तु यह धारणा सर्वथा सत्य नहीं होती। प्रायः किशोर बालिकाओं से शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने से हिचकता है तथा किशोरियाँ तो स्वभाव से ही शर्मीली होती हैं, जिसके फलस्वरूप उनमें कितना ही आकर्षण क्यों न हो, उनके शारीरिक सम्बन्धों की सम्भावना कम ही रहती है, जब तक कि बालक अथवा बालिका किसी अत्यन्त दूषित वातावरण में न पले हों। उसका प्रेम प्रायः आदर्श प्रेम की सीमा तक ही सीमित रहता है क्योंकि आदर्शवादिता किशोर का एक प्रमुख लक्षण होता है।
यदि हमारे विद्यालयों और कॉलेजों में किशोर और किशोरियों के लिए सम्मिलित कार्यों और सामूहिक क्रियाओं का आयोजन किया जाये तो अनुशासनहीनता और बालकों द्वारा बालिकाओं को छेड़ने तथा चिड़ाने की समस्या बहुत-कुछ हल हो सकती है। भारतीय समाज आज संक्रान्ति बेला के किनारे खड़ा है। एक तरफ पुरानी परम्पराएँ और अन्धविश्वास हैं, दूसरी तरफ चेतना और जागरण की विचारणी है। हम पुराने सिद्धान्तों की कटु आलोचना करते हैं - उनमें बुराइयाँ हैं, दोष हैं, जो हमारे समाज के विकास में बाधक हैं- किन्तु नवीन सिद्धान्तों, नवीन आदर्शों को हम ग्रहण नहीं कर पाये हैं। उसमें आस्था रखते हुए भी उन्हें हम अपने व्यवहारिक जीवन में उतार नहीं पाये हैं। इसका परिणाम हमारे नवयवुकों पर बहुत बुरा पड़ता है, उनके मस्तिष्क में संघर्ष हैं, अन्तर्द्वन्द्व है। वे नवीन विचारों के होते हैं तथा पुराने विचारों से तादात्म्य स्थापित न करने के कारण उनमें मानसिक द्वन्द्व का होना सहज ही है, क्योंकि उनके नवीन चेतना-जनित कार्यों को समाज स्वीकार नहीं करता।
किशोर और किशोरियों को अधिक मिलने-जुलने, उनको सामूहिक एवं सहकारी रूप से सामाजिक कार्यों में भाग लेने की सुविधा प्रदान करनी चाहिए जिससे विषमलिंगी से मिलने का अभाव उन्हें खटकता न रहे। जब एक-दूसरे के प्रति आकर्षण स्वभाविक है तो उसके सम्पर्क के अभाव से जनित समस्याओं का समाधान उनके सामाजिक सम्पर्क स्थापित करने से और लड़कियाँ लड़कियों से मिलना-जुलना अधिक पसन्द करती हैं। उसमें समानलिंगी के प्रति ही अधिक रुचि दिखाई पड़ती है। फिर भी कुछ किशोर और किशोरियों में विषमलिंगी के प्रति भी रुचि देखी जाती है। भारत में जहाँ लड़के लड़कियों से बिल्कुल पृथक् रखे जाते हैं, समाज उन्हें स्वतन्त्र रूप से मिलने-जुलने की आज्ञा नहीं देता, अतः यहाँ समलिंग कामुकता की अवस्था स्पष्ट लक्षित होती है। बालकों को केवल बालकों का ही साथ मिलता है और बालिकाओं को केलव बालिकाओं का ही सम्पर्क उपलब्ध होता है। फलस्वरूप, समलिंग के प्रति ही उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है। वे अपनी कामुकता की पूर्ति का सहज साधन उन्हें ही मानने लगते हैं। यह प्रवृत्ति केवल भारत में ही प्रचलित नहीं हैं, वरन वैलेन्टाइन ने देखा कि स्वयं उनके देश में भी किशोर विद्यार्थियों में 50% बालकों और 72% बालिकाओं मे समलिंग कामुकता की प्रवृत्ति पाई जाती है।
समलिंग कामुकता में बालक विषमलिंगी के स्थान पर स्वलिंगी को ही अपनी काम तृप्ति के लिए स्थानापन्न समझ लेता है। इसमें व्यक्ति सुरक्षा की भावना से अनुप्राणित होता है, तात्पर्य यह है. कि बड़े छोटों के प्रति अनुरक्त होते हैं। पुरुष में विषमलिंगी के प्रति जो सुरक्षा की भावना होती हैं वहीं समानलिंगी के प्रति स्थानान्तरित हो जाती है और व्यक्ति अपने से कमजोर और छोटे बालकों के प्रति कामुकता प्रदर्शित करता है। इसी प्रकार, बालिकाएँ भी अपनी कामुकता की पूर्ति के लिए पुरुषं के अभाव में उनके स्थान पर समानलिंगी को चुनती हैं। इस चुनाव में वे अपने से बड़ी उम्र क बालिका को ही युवकों का स्थानापन्न बनाती हैं। चूँकि पुरुष शक्तिशाली और रक्षा करने में समर्थ होता है, इसलिए उसी के अनुरूप अपने से बड़ी बालिका को कामुकता की तृप्ति का साधन बनाया जाता है। इस प्रकार की स्थानापन्नता हमारी पाठशालाओं में बहुत ही सामान्य रूप से प्रचलित है क्योंकि लिंगीय पृथकक्करण की नीति से कामुकता की तृप्ति का प्राकृतिक साधन न मिलने पर ही पुरुष का स्थानापन्न स्त्री और स्त्री का स्थानापन्न पुरुष बनाया जाता है। यद्यपि अधिकतर बालक और बालिकाओं में यह प्रवृत्ति आकर्षण और अनुरक्तता तक ही सीमित रहती है, उनमें यह प्रवृत्ति का सक्रिय शारीरिक रुप बहुत कम मिलता है, फिर भी यह अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि यह भावना विद्यालयों में प्रचलित है। इस प्रवृत्ति के कारण विद्यालयों के अन्तर्गत छात्रों में बहुत-से झगड़े भी उठ खड़े होते हैं।
समलिंग कामुकता अथवा समानलिंगी को प्यार करने की प्रवृत्ति अपमानजनक नहीं, किन्तु सक्रिय शारीरिक सम्बन्धों एवं समानलिंगी कामुकता की आलोचना अवश्य होनी चाहिए। कभी-कभी यह समलिंगी प्रेम विषमलिंगी कामुकता का स्थान ग्रहण कर लेता है और व्यक्ति अपनी कामुकता की पूर्ति स्वलिंगी के सक्रिय शारीरिक सम्बन्धों द्वारा पूर्ण करता है। यह प्रवृत्ति किशोर- काल के उपरान्त कभी-कभी प्रौढ़ावस्था तक भी चलती रहती है। यह प्रावस्था अत्यधिक शोचनीय होती है और किसी भी प्रकार से उचित नहीं ठहराई जा सकती है। अतः इस दिशा में निरुत्साहित ही नहीं वरन् इसका विरोध भी करना चाहिए तभी व्यक्ति की वास्तविक उन्नति सम्भव है, किन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि यह एक मनोवैज्ञानिक समस्या है। केवल भर्त्सना अथवा शारीरिक कष्ट देने से इसका समाधान नहीं हो सकता है। समलिंग कामुक व्यक्ति एक रोगी है और रोगी के समान ही उसके साथ व्यवहार होना चाहिए। उनके रोगों के कारणों का निदान करके उसका उपचार करना चाहिए।
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- प्रश्न- मानव विकास क्या है?
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- प्रश्न- विकासात्मक अध्ययनों में वैयक्तिक अध्ययन विधि के महत्व पर प्रकाश डालिए?
- प्रश्न- चरित्र-लेखन विधि (Biographic method) पर प्रकाश डालिए ।
- प्रश्न- मानव विकास के सम्बन्ध में सीक्वेंशियल उपागम की व्याख्या कीजिए ।
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- प्रश्न- गर्भकालीन विकास की विभिन्न अवस्थाएँ कौन-सी है ? समझाइए ।
- प्रश्न- गर्भकालीन विकास को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारक कौन-से है। विस्तार में समझाइए।
- प्रश्न- नवजात शिशु अथवा 'नियोनेट' की संवेदनशीलता का उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- क्रियात्मक विकास से आप क्या समझते है ? क्रियात्मक विकास का महत्व बताइये ।
- प्रश्न- क्रियात्मक विकास की विशेषताओं पर टिप्पणी कीजिए।
- प्रश्न- क्रियात्मक विकास का अर्थ एवं बालक के जीवन में इसका महत्व बताइये ।
- प्रश्न- संक्षेप में बताइये क्रियात्मक विकास का जीवन में क्या महत्व है ?
- प्रश्न- क्रियात्मक विकास को प्रभावित करने वाले तत्व कौन-कौन से है ?
- प्रश्न- क्रियात्मक विकास को परिभाषित कीजिए।
- प्रश्न- प्रसवपूर्व देखभाल के क्या उद्देश्य हैं ?
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- प्रश्न- प्रसवपूर्व विकास को प्रभावित करने वाले कारक कौन से हैं ?
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- प्रश्न- प्रसवपूर्ण देखभाल बच्चे के पूर्ण अवधि तक पहुँचने के परिणाम को कैसे प्रभावित करती है ?
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- प्रश्न- शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास क्या है?
- प्रश्न- शैशवावस्था की विशेषताएँ क्या हैं?
- प्रश्न- शिशुकाल में शारीरिक विकास किस प्रकार होता है?
- प्रश्न- शैशवावस्था में सामाजिक विकास पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखो।
- प्रश्न- सामाजिक विकास से आप क्या समझते है ?
- प्रश्न- सामाजिक विकास की अवस्थाएँ कौन-कौन सी हैं ?
- प्रश्न- संवेग क्या है? बालकों के संवेगों का महत्व बताइये ।
- प्रश्न- बालकों के संवेगों की विशेषताएँ बताइये।
- प्रश्न- बालकों के संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारक कौन-से हैं? समझाइये |
- प्रश्न- संवेगात्मक विकास को समझाइए ।
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- प्रश्न- नैतिक विकास को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारक कौन-से हैं? विस्तार पूर्वक समझाइये?
- प्रश्न- संज्ञानात्मक विकास की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
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- प्रश्न- बाल्यकाल में शारीरिक विकास किस प्रकार होता है?
- प्रश्न- सामाजिक विकास की विशेषताएँ बताइये।
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- प्रश्न- उत्तर व्यस्कावस्था में कौन-कौन से परिवर्तन होते हैं तथा इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप कौन-कौन सी रुकावटें आती हैं?
- प्रश्न- पूर्व प्रौढ़ावस्था की प्रमुख विशेषताओं के बारे में लिखिये ।
- प्रश्न- वृद्धावस्था में नाड़ी सम्बन्धी योग्यता, मानसिक योग्यता एवं रुचियों के विभिन्न परिवर्तनों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- सेवा निवृत्ति के लिए योजना बनाना क्यों आवश्यक है ? इसके परिणामों की चर्चा कीजिए।
- प्रश्न- वृद्धावस्था की विशेषताएँ लिखिए।
- प्रश्न- वृद्धावस्था से क्या आशय है ? संक्षेप में लिखिए।
- प्रश्न- उत्तर वयस्कावस्था (50-60 वर्ष) में हृदय रोग की समस्याओं का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- वृद्धावस्था में समायोजन को प्रभावित करने वाले कारकों को विस्तार से समझाइए ।
- प्रश्न- उत्तर वयस्कावस्था में स्वास्थ्य पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- स्वास्थ्य के सामान्य नियम बताइये ।
- प्रश्न- रक्तचाप' पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- आत्म अवधारणा की विशेषताएँ क्या हैं ?
- प्रश्न- उत्तर प्रौढ़ावस्था के कुशल-क्षेम पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
- प्रश्न- संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- जीवन प्रत्याशा से आप क्या समझते हैं ?
- प्रश्न- अन्तरपीढ़ी सम्बन्ध क्या है?
- प्रश्न- वृद्धावस्था में रचनात्मक समायोजन पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- अन्तर पीढी सम्बन्धों में तनाव के कारण बताओ।